यूँ चला गया एक और गणतंञ दिवस । बड़ें उत्साह से सुबह 7 बजे परेड देखने निकला यह परिवार , दोपहर बाद थका सा चेहरा लेकर घर में दाखिल हुआ । अरे भई ..........इससे अच्छा तो घर पर टीवी के सामने बैठकर चाय पीते पीते परेड देख लेते । पति महोदय ने खिन्न मन से कहा । आशा के विपरीत पत्नी महोदया ने भी सहमति भरी । काश मैंने तुम्हारी बात मान ली होती । छुट्टी का पूरा दिन बेकार हो गया । 3 किलोमीटर पहले पार्किंग और पचास जगह चेकिंग । बैठने की जगह भी मिला सबसे दूर वाले ब्लाक में । वहॉं तक आते आते तो परेड भी ढीली पड़ जाती है ।
उधर पिछले एक महीने से अपनी कमर सीधी न कर सक पाने वाले खाकी वर्दीधारियों ने भी ठीक ठाक आयोजन खत्म होने पर चैन की सॉंस ली । एक ने अपनी टोपी झाड़कर सिर पर रखी और तड़ से घर फोन जड़ दिया । मुझे छुट्टी मिल गई है .......... कल शाम तक पहुँच जाऊँगा ।
इधर सड़कों पर जो बच्चे कल तक रेड लाइट पर कारों के आगे झण्डे बेचकर पैसे कमा रहे थे वो अब सड़क पर इधर उधर पड़े झण्डों को बीन रहे थे । इन्हें बेचकर कुछ पैसे और मिल जाएंगे । इन बच्चों के लिए 26 जनवरी सिर्फ एक तारीख भर है जिस दिन ये झण्डे बेचकर थोड़ा ज्यादा कमा सकते हैं और किसी स्कूल के गेट के आगे खड़े होकर अपनी बारी पर मिठाई मिलने का इन्तजार कर सकते हैं ।
यही है हमारा गणतंञ दिवस । मुझे तो गणतंञ दिवस आम और खास के बीच के अंतर को परिलक्षित करने वाला एक आयोजन भर लगता है ।
शेखर
जब गण तंत्र गण का न रह कर तंत्र का रह जाए तो ऐसा ही होता है।
जवाब देंहटाएंजो बच्चे कल तक रेड लाइट पर कारों के आगे झण्डे बेचकर पैसे कमा रहे थे वो अब सड़क पर इधर उधर पड़े झण्डों को बीन रहे थे । इन्हें बेचकर कुछ पैसे और मिल जाएंगे
जवाब देंहटाएंज़ाहिर है अभी हमारे गणतंत्र में से गण (लोग खासकर आम लोग) पूर्णतयः लापता हैं
शेखर जी,
जवाब देंहटाएंआपके ब्लॉग पर दीर्घ अवधि से कुछ नया देखने को नहीं मिला है। व्यस्तता के बीच में से हम लोगों के लिए भी समय निकालिए शेखर जी।